शनिवार, 30 अगस्त 2014

नया क़र्ज़

पहले से ही थे 
मुझ पर न जाने कितने तरह के क़र्ज़ 
अब मैं किसी और का फिर से 
कर्ज़दार हो गया हूँ.

मुश्किल है मेरे सामने कि
कैसे लौटा पाउँगा उसे 

चाँद से लेकर तारों तक 
नदियों से लेकर पेड़ों तक 
धूप से लेकर बारिश तक का क़र्ज़
रहा मुझ पर बचपन से
चुकता नहीं कर पाया उसे
बाप दादों का भी कोई क़र्ज़
कहाँ उतार पाया अब तक
अब एक और क़र्ज़ आ गया है
इस बुढ़ापे में मुझ पर

तुमने कहा है मुझ से बार बार
कि ये प्रेम एक उपहार है मुझको
तुम्हारी तरफ से
लेकिन पता नहीं क्यों
लगता है मुझ को
यह तुम्हारी तो तुम्हारी अनुकम्पा है मुझ पर
जिसने मरने पहले
एक बार फिर बना दिया है मुझको.
नए सिरे से तुम्हारा क़र्ज़ दार

ओह....इसकी बोझ तले
कैसे कर पाऊंगा मैं तुमको प्यार .

विमल कुमार

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