बुधवार, 6 अगस्त 2014

वो एक कविता नहीं थी

कहने के लिए
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कहने के लिए वह एक दीवार थी
और उसका झरता हुआ पलस्तर था
पर वह तो दरअसल समय था
जो धीरे धीरे बीत रहा था
मेरे भीतर

कहने को वो एक घड़ी थी 
और उसके भीतर टिक टिक की आवाज़ थी
पर वो तो मेरी ही आत्मा थी
जिसमे गहरी चीख पुकार मची थी

कहने को वो एक फूल था
और उसकी खुशबू थी
पर वो तो मेरे दर्द की अभिव्यक्ति का ही एक रूप था
जो पौधे के भीतर था छिपा एक बीज के रूप में

कहने के लिए वो एक हवा थी
पर सच ये है
कि वो तुम्हारी सांस थी
मेरे सीने से निकली हुई
बहती हुई सुबह सुबह इस तरह

दरअसल कहने को वो प्यार था
पर वो तो मेरे जीने का एक अंदाज़ था
जिसके बगैर मैं कल्पना नहीं कर सकता था
अपने जीवन की

कहने के लिए ये मेरी कविता थी
कुछ शब्द थे कुछ वाक्य थे
पर वो तो तुम्हारी ही गहरी पीड़ा थी
जो मेरे हिस्से में आ गयी थी
दरअसल वो
तुम्हारे ही आंसू थे
जो मेरी आँखों से बह निकले थे
कागज के एक टुकड़े पर

विमल कुमार 

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