शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2018


  स्मृति में बरसात



 करीब तीस साल बाद उस से मेरी यह चौथी मुलाक़ात थी

अगर थोडा सच कहूँ तो कायदे से मेरी पहली मुलाक़ात थी

अगर और बोलूं जरा साफ़ साफ़

तो वो मेरी मुलाक़ात भी नहीं थी

तीस साल बाद वो पूल भी अब कहाँ पूल था

जिसके नीचे मैं खडा था

टूट ते हुए आसमान के नीचे

मैं भी कहाँ वो मैं  था 

जो था पहले तीस साल

आधे बाजू की एक कमीज़ पहने

अगर आपने हुलिए का बयां करूँ

तो मैं आंधी में गिरे एक पेड़ की तरह था

उतना ही ज़र्ज़र जितना वो पूल था

उस से तीस पहले जब मिला था

तो अब वो शाम भी नहीं थी

क्योंकि इस शहर की शामें भी बदल चुकी थी

अब आसमान पर थोड़ा चाँद भी तिरछा हो गया था

तारे भी थोडा उदास हो गए थे

रोशनी भी अब कहाँ रौशनी थी

पर वो थी आज मेरे सामने

अपने रंगों और  पंखों के साथ

अपने सपनों और अपनी सुन्दर इच्छाओं के साथ

सिर्फ वक़्त ही नहीं था मेरे साथ

मेरी घड़ी भी मुझको धोखा  दे चुकी थी  

अब सिर्फ एक कागज़ था

एक कलम थी

स्याही थी

इसलिए तीस साल पहले मेरी उसकी मुलाक़ात को

तीस साल बाद की मुलाक़ात से जोड़कर देखा नहीं जा सकता था

अगर सच कहूँ तो पहली मुलाक़ात भी पहली मुलाक़ात कहाँ थी

कितना कम जान पाया था उसे आज तक

कितना कम बता पाया था उसे आज तक

कितना उसे छिपा पाया था

कितना सच अपनाउसे  सुना पाया था

कम नहीं होते हैं तीस साल जीवन के

कम नहीं होते है इतने दिन किसी मुल्क के

छह चुनाव हो चुके थे

कई पार्टियों की सरकारें आकर चली गयी थी

कई वादे सब धुआं हो चुके थे

कई घोषणायें दम थोड चुकी थीं

मैं भी पहुँच गया था एक सूखते हुए कुएं के किनारे

प्यास मेरी भी बढ़ चुकी थी

बहुत कम बची थी रात

ज्यादा अँधेरा था

बहुत कम थी सांस

हवा भी अधिक नहीं थी

बहुत कम गले में आवाज़ बची थी

तीस साल में बहुत धुल उड़ चुकी थी

भूकंप के झटके

और तूफ़ान भी आकर चले गए थे

मकडी के जले घरों में लग चुके थे

तीस साल में मेरी उस से मेरी ये चौथी मुलाक़ात थी

  पर कायदे से उससे टेलीफ़ोन पर भी मेरी कोई बात नहीं थी

बस एक मेज़ थी

काफी का प्याला था

बहार बारिश की कुछ बूंदें थी

भीतर एक दस्तक था

थोड़ी सी खिड़की खुली थी

परदे थोड़े खिसके थे

वो अचानक अजीब सी मुलाक़ात थी

 आखिर वो कितनी देर तक ही मेरे साथ थी





स्मृति में बची अब  सिर्फ

उस दिन की बरसात थी
विमल कुमार

रविवार, 8 जुलाई 2018

हत्यारे को भी नही मालूम था

हत्यारे को भी नही मालूम था एक दिन उसे फूल मालाएं पहनाई जाएंगी नही पता था बलात्कारी को कि वह सम्मानित भी किया जाएगा दंगाईयों को उम्मीद नही थी कि उनकी तारीफ में लिखे जाएंगे लेख अब सब कुछ संभव था नही था कोई आश्चर्य यह मेरा ही मुल्क था। यह मेरा ही शहर था। यह मेरी ही गली थी। यह मेरा ही मुहल्ला था कहने को अब कुछ नही बचा था शर्मिंदगी की भी हद होती है झूठ का इस कदर प्रदर्शन भी होता है सत्य का गला भी इस तरह कहीं दबता है बस एक हीउम्मीद है रात कितनी भी लम्बी हो एक दिन वह खत्म होगी ही।। विमल कुमार

बुधवार, 14 फ़रवरी 2018

वेलेंटाइन डे

valentine day
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कहीं से से अश्लील नहीं थे वो चुम्बन
जब उसने कसमसाते हुए पकड़ा था
तुम्हारा हाथ
और पुराने किले की जर्जर दीवार से
तुम्हारी पीठ को सटा कर
तुम्हे चूमा था
एक बार नहीं कई बार
कहाँ था अश्लील वो चुम्बन
जब पेड़ की ओट में लिया गया था
कि सामने से आता आदमी देख न सके तुम्हे
एक ललचाई नज़रों से
कोई भी चुम्बन अश्लील नहीं होता
जब लिया गया हो प्यार में
तो फिर दूसरों को इस से क्या परेशानी
क्यों दिए जाते हैं इस तरह के फतवे
कि कोई इस तरह न चूमे एक दू सरे को
जिन्हें शर्म आती है ये देखकर कि कोई किसी को चूम रहा
तो वे बंद कर ले अपनी आँखे
पढने लगे गुरुग्रंथ या गीता
या किसी अख़बार में आँख गडा लें
कई बार वे नाक भौं सिकोड़ते हैं
भीखमंगों से चुराते हैं आँखे
पर वे क्यों देखना चाहते हैं
चुम्बन के ये दृश्य
इस बदलते हुए भारत में
ये कहते हुए कि तहजीब नहीं है ये सब
है भारतीयता के विरुद्ध और धार्मिक आचरण के
पर पूछना चाहता हूँ उनसे
कि हर साल होने वाले दंगे कितने भारतीय हैं
काले धन जमा करना कितना धार्मिक कार्य है
कितना आधुनिक है
डायन कह कर किसी को मार ना
देना नरबलि मंदिर में
इसलिए मुझे नहीं लगता कि फरवरी के महीने के बीच में
जब ठण्ड जाने लगती है और बर्फ भी गिरनी बंद हो जाती है
तो कोई किसी पार्क में एक झाड़ी के उस पार किसी को चूम ही लेता है
तो वो क्या गुनाह करता है
कि तुम त्रिशूल लेकर दौड़े चले आतेहो
किसी चहरे पर कालिख पोतने के लिए
पर तुमने आज तक उनके चेहरे पर कालिख नहीं पोती
जिसने पूरी राजनीति को अश्लील बना दिया है
ज़हर घोल दिया है समाज में
धर्म को तो और भी अश्लील बना दिया है कारोबार बनाकर
कि उसे धर्म कहने पर भी शर्म आती है मुझे
जब तुम बेरोजगार लडको को नौकरी नहीं दे सकते हो
नहीं ख़त्म कर सकते हो दहेज़ की क्रूर प्रथा
तो तुम्हे क्या हक है किसी की खुशी छीन ने का
अगर कोई किसी को किवाड़ के पीछे जाकर किसी को चूमना चाहता हो
चूमने दो उन्हें वसंत के इस मौसम में
जब फूल खिल रहें हो बगीचे में
तितलियाँ उड़ रही हों और भौरें भी मडरा रहे हो
जीने दो उन्हें पल दो पल जिन्दगी
जब तुम रोज़ अपने बयानों से
लोगों की ज़िन्दगी को नरक बना रहे हो
विमल कुमार