रविवार, 19 जुलाई 2015

शनिवार, 18 जुलाई 2015

कितनी बार वो मरी थी

 कितनी बार वो मरी  थी 

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वो मरी थी
तो एक नाव की तरह ही डूब कर मरी थी
अपनी बोझसे अधिक
मुसाफिरों के बोझ से
वो मरी थी 
तो तारों की त रह
टूट कर ही मरी थी
जितनीथी उसकेपास रौशनी
उसे बिखेरती हुई आसपास
वो एकबार आंधी में गिरे
एकपेड़ की तरह मरीथी
जानेकितने राहगीरों को छाया देने के बाद
कई बार वो मरी
रसोइघर में
धुएंसे घिर कर उसे मरते हुए देखा था मैंने
कमर दर्द से परेशांन
खाना बनाते हुए
गुसलखाने में भी उसे मरते हुए देखा गयाथा
चुपचाप जब वो बैठी होतीथी
खिड़कीके पास शामको इंतज़ार करते
अपनी मौन में भी अनेकोबार मरी हुई थी
रात में बिस्तर पर
अपनी इच्छाके विरुद्ध भी वो मर जाती थी
अक्सर सुख की तलाश में
प्रसव वेदना में उसकी मृत्यु तय थी
वो मरी थी बार बार
जिन्दाहोकर
अन्याय सेलड़तेहुए
मरी थी
वोअस्पताल में
आख़िरीबार चीखते हुए
उसका मरना
हमारे मरने की भी निशानी थी
उसका जिंदा रहना जरूरी था धरती के लिए भी
वो मरने के बाद
एक जुगनू बनीथी
अँधेरे में चमकते हुए
उसेजबकि प्यार किया जाना चाहिएथा
लेकिन उसका दुःख कभी ठीक ठीक समझा नहीं गया इतिहास में
कई बार तो वो इस वज़ह से भी मरी
किउसे क्योंसमझा जताहै
सिर्फ एक देह
जबकि आत्मा भीहोती है
उसके भीतर

गुरुवार, 16 जुलाई 2015

शिलालेख

गुजरात के शिलालेख .........
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एक बात मैं आपको बताऊँ
जब मैं गुजरात में था
तो अक्सर सुबह सुबह टहलने नदी के किनारे जाता था 
वहीं कई बार पानी के भीतर घडियालों से खेलने लगता था
एक दिन एक घड़ियाल के बच्चे को उठाकर लाया था अपने घर
आपको ये जानकर आश्चर्य होगा
जब मैं गुजरात में था
तो एक बार जंगल में जाकर शेरो से हाथ भी मिला आया था
उसके बाद शेर भी मुझे पहचान ने लगे थे
पेड़ भी मुझे जन ने लगे थे
उसके बाद मैंने सोचा
मैं खुद शेर क्यों न बन जाऊं
फिरआप सब की दुआओं से
मैं एक दिन शेर भी बन गया
जब मैं गुजरात में था
तो जादू की कला वहीं सीखीथी मैंने
हाथ की सफाई में उस्ताद हो गया था
तो मजमे लगाने में भी निपुण
बांसुरी बजाने भी लगा था बचपन में
सपने दिखाने के गुर भी सीख गया था
जब मैं गुजरात में था
तो अक्सर दूरबीन लगाकर
खोजने निकल जाता था गरीबी
अक्सर मुझे कोई गरीब आदमी नहीं मिलता था
एक बार मुझे एक गरीब बुढिया मिली तो मैं रोने लगा
तब से मेरा दिल पसीज ने लगता है
किसी आदमी को मुसीबत में देखकर
जब मैं गुजरात में था
तो इतिहास की खूब किताबें पढी थी मैं
वेदों पर अटूट विश्वास तब से है
ये आप मेरे इतिहास ज्ञान से भी पता लगा सकते हैं
आपको जानकर ये खुशी होगी
कि एक बार मुझे एक ज्योतिष ने बताया
कि इस देश के असली दुश्मन कम्युनिस्ट हैं
अगर वे नहीं होते तो इस देश की बहुत तरकी होती
एक राज़ की बात बताता हूँ आपको
जब मैं गुजरात में था
तो गुजरात मेरे भीतर धड़कता था
ये पता लगाना मुश्किल था
कि मैं गुजरात के भीतर हूँ या गुजरात मेरे भीतर
एक वाक्य ऐसा हुआ मेरे जीवन में
पोरबंदर में मुझे शाम को पार्क में बापू मिले
उन्होंने कहा
तुम हमेशा सत्य की राह पर चलना
अहिंसा मेंकरना यकीन

तब से मैं सत्य के मार्ग पर चल रहा हूँ
ये आप भी देख रहे हैं.
इसलिए कह रहा हूँ
गुजरात में एक बार भी दंगा नहीं हुआ
जो लोग मरे वे इस देश के लिए शहीद हुए थे
लेकिन मुझे कातिल भी बताया गया
पर खुदा का साया मेरे ऊपर था
और मैं आज आपके सामने हूँ
जब मैं गुजरात में था
तो बहुत मज़े के दिन थे
मेरे बदन से खूशबू आने लगी थी
मेरी आँखों से रौशनी झरने लगी थी
मेरे शब्दों से मोती निकलने लगे थे
बादलों की तरह मैं उड़ने लगा था
पतंग भी आसमान पर उड़ाने लगा था
दफ्तर के सामने ही कंचे खेलने लगा था
जब मैं गुजरात में था
कवितायेँ भी लिखने लगा था
कुछ कहानियां भी लिखी थी मैंने
डायरी भी नियमित लिखता था
घर में अकेला था
समय भी बहुत था
दिन रात देश के बारे में सोचते हुए दुबला हो गया था
तब मैं चशमा भी लगाता था
जब मैं गुजरात में था
तो मुझे अक्सर लगता था
कि मैं गुजरात में नहीं हूँ
मैं तो पुरे ब्रह्माण्ड में हूँ
अनंत में हूँ
एक शून्य में हूँ
नक्षत्रों के आसपास
आकाश गंगा की आगोश में
क्या दिव्य अनुभूति होती थी
अब मैं अध्यात्म की खोज में
गुजरात से दूर बहुत दूर निकल गया हूँ
इतने देशीं की यात्रा करते हुए
लेकिन गुजरात अभी भी भूला नहीं हूँ
वो मेरे शरीर में है रक्त की तरह
वो मेरी अस्थियों में है
मज्जा की तरह
वो मुझे अभी भी पुकारता है एक बच्चे की तरह
पता नहीं क्यों
मुझे पूरा संसार अब गुजरात ही लगता है
आप एक बार गुजरात जरूर जाये
जैसे मरने से पहले लोग चारों धाम जाते हैं
आप अपनी तस्वीर ट्विटर पर जरूर डालें
मैं री ट्विट करूँगा
और फिर देखिएगा
आपकी सारी 
छु मंतर 

शनिवार, 11 जुलाई 2015

आयरा :  बारिश कल तुम नहीं मिली मुझ सेबारिश में लेकिन मैं...

आयरा :  बारिश 
कल तुम नहीं मिली मुझ सेबारिश में लेकिन मैं...
:  बारिश  कल तुम नहीं मिली मुझ से बारिश में लेकिन मैं भीगता रहा दिन भर तुम्हारे  यादो की बारिश में इतना भीगा कि जुकाम भी हो गया ...

बारिश में मुलाक़ात

 बारिश 

कल तुम नहीं मिली मुझ से बारिश में
लेकिन मैं भीगता रहा दिन भर
तुम्हारे  यादो की बारिश में
इतना भीगा कि जुकाम भी हो गया
रात में  तेज  बुखार भी
बुखार में मैं तुम्हे ही याद करता रहा
सुबह ख़त्म हो गयी थी
बारिश
सिर्फ बची रह गयी  थी
 यादें..!

२ ,
बारिश में अगर
नहीं मिल सकती हो तुम
 तो क्या
 कल
 मिलोगी
यादों की धूप में

जिन्दगी की पेड़ के नीचे 

चाँद से मुलाक़ात है असंभव

असंभव  है धरती पर चाँद से मिलना
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शायद  मैं नहीं मिल पाउँगा अब तुमसे इस दुनिया में कभी
यह कहना ठीक नहीं होगा जब तुमसे मिलने का एक दिन मुक़र्रर हुआ है
पर जो चीज़ें  तय थी जिन्दगी में वे कितनी अनिश्चित  हो गयीं है

जब रौशनी रोज दम तोड़ रही है पानी में ज़हर मिलता जा रहा हो  
मैं कैसे कह दूँ कि तुमसे मिल पाउँगा ही  अब फिर कभी
खुदा न खास्ते  कभी मिला सड़क पर अचानक या प्लेटफार्म पर से नीचे उतरते हुए
तो समझो एक दरख़्त की तरह ही मिलूँगा तुमसे हाथ मिलाते हुए
कितने लोगों से मिलने के इंतज़ार में एक दरख़्त में ही तब्दील हो गया हूँ

अगर दरख़्त की तरह नहीं मिला तो समझो एक पत्थर की तरह जरूर मिलूँगा
जिस पर अपने ज़माने की कई लगी हो चरों तरफ  
कायदे से मुझे इस बरसात के मौसम  में एक बादल  की तरह ही मिलना चाहिए था
लेकिन मैं आदमी से  बादल बन ने की इच्छा लिए बुढा हो चला हूँ
धुप और खुशबू  की तरह मिलता तो मुझे भी अच्छा लगता
तुमसे अगर मिला कभी मैं अपने शहर से बाहर समंदर के किनारे
जिसकी सम्भावना बहुत कम है लगभग असंभव
तो एक किताब की तरह ही मिलना चाहूँगा
लेकिन हिन्दी में किताबों के छपने का संकट भी कम नहीं है

शायद इसलिए कहता हूँ मैं कि अब शायद तुमसे कभी नहीं मिलूँगा
अगर मिल भी गया तुमसे अपने दफ्तर के आसपास लंच के समय मूंगफली खाते हुए
तो मुझे भी लगेगा कि तुमसे कहाँ मिला हूँ इस तरह मिलकर
लेकिन एक सड़क जिस तरह मिलती है किसी सड़क से चौराहे पर फिर आगे निकल जाती है
उस तरह तो मिला ही जा सकता है किसी दिन शाम को
भले उसमे एक पूल और रेलगाड़ी के मिलने की आवाज़ न हो शामिल
एक आदमी के चाँद से मिलने की ख्वाहिश न हो छिपी हुई
लेकिन मैं   डर है कि तारीख मुक़र्रर होने के बाद भी

तुमसे अब शायद नहीं मिल पाउँगा
 क्योंकि चाँद से धरती पर कभी नहीं मिला जा सकता है
और अक्सर मिलने के बाद किसी से तेज आंधियां चलने लगती हैं मेरे भीतर
और फिर इधर उधर चीज़ें बिखर जाती है
तहस नहस हो जता है सबकुछ
अख़बारों के पन्ने फडफड़ाने  लगते है

 और बरामदे पर जमा हो जाती है ढेर सारी धुल ,

बुधवार, 1 जुलाई 2015

आ राहाहूँकोलकत्ता

आ रहा हूँ कोलकत्ता!
मैं तुम्हारे पास आ रहा हूँ
अपनी बाँहों में भरने तुम्हारे पास आ रहा हूँ 
लहरों की तरह दौड़ता हुआ 
तुम्हारे पास अगले महीने सुबह की गाडी से आ रहा हूँ
दुःख की इस घड़ी में 
तुम्हारा हाथ पकड़ने के लिए 
देने के लिए साथ 
सर्द रातों में 
ठिठुरते हुए
हावड़ा ब्रिज पर तुम्हारे साथ
थोड़ी दूर चलने के लिए 
हुगली नदी में तुम्हारे साथ अपना चेहरा देखने के लिए 
एक पुराने इतिहास को समेटने के लिए आ रहा हूँ
कोलकता मैं आ रहा हूँ';
जब मेरे घुटने का दर्द बढ़ गया 
'
हो गया इस उम्र में दिल का मरीज़ 
तो अपनेउसी दिल को विक्टोरिया मेमोरियल की पार्क में 
फिर से खोजने के लिए आ रहां हूँ.
जहाँ तुम्हे शाम के अँधेरे में चूमा था पहली बार .
तमाम वर्जनाओं को ध्वस्त करते हुए 
पाखण्ड से भरी नैतिकता की धज्जियाँ उड़ाते हुए 
सोनागाछी में आ रहा हूँ उनकी सिसकियों को फिर से सुन ने के लिए .
बड़ा बाज़ार में तुम्हे शरमाते हुए देखने के लिए 
धर्मतल्ला की भीड़ में पसीने से तरबतर 
पैदल चलते हुए 
ट्राम में तुम्हे याद करने के लिए आ रहा हूँ
उबकर दिल्ली के गर्मी से 
एक राजनीतिक प्रहसन को देखने के बाद 
थोडा सुस्ताने के लिए आ रहा हूँ
ये जानते हुए कि तुम्हारी बेचैनी गयी नहीं है 
तुम बहुत तकलीफ में हो 
छले गए हो कई बार 
अस्पताल में पड़े हो 
बार बार खून चढ़ाया जाता है तुम्हे 
करवट लेते हो 
पर तुम्हारी नींद पुरी नहीं होती है
तुम्हारे सपनो को देखने के लिए भी आ रहा हूँ
क्या फिर तुम लोगे एक बार और अंगडाई 
क्या देखोगे अपना चेहरा आईने में 
क्या चेहरे पर माँरोगे पानी की छीटे
क्या रूमाल से साफ़ करोगे फिर उसे
कोलकत्ता !
मैं आ रहा हूँ कयी सालों के बाद 
ये देखने कि जब सब कुछ बदल गया है
तो तुम कितना बदल गए हो
चढ़ गया हूँ ट्रेन में 
गार्ड ने सीटी दे दी है 
कोलकता मैं आ रहा हूँ 
तुम्हे अपनी स्मृतियों में समेटने के लिए 
कि तुम् रहोगे जिन्दा मेरे भीतर 
मरोगे नहीं कभी 
और एक चिंगारी भड़कती रहेगी मेरे सीने में तुमसे मिलकर .
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·         Vimal Kumar