बुधवार, 6 अगस्त 2014

नहीं रही आयरा........

आज तुम नहीं रही आयरा.
ये तारीख 
ये दिन 
ये साल 
ये वक़्त 
भला कैसे भूल सकता हूँ 

कैसे भूल सकता हूँ 
आज के दिन तुम धुआं बन गयी थी 
फिर राख 
जबकि तुम मेरे लिए थी
कभी नदी और चाँद

अब तुम सिर्फ एक स्मृति हो
जबकि कभी तुम मेरी सांस थी
कभी एक सपना
जाने से पहले तुमने कहा था
मेरी बाँहों से लिपटकर
तुम्हारी आयरा कभी नहीं मिलेगी

वो टिमटिमाती रहेगी आसमान में
खुशबू की तरह उडती रहेगी हवा में
पर तुम उस पकड़ नहीं पाओगे एक जुगनू की तरह

मैं ही हूँ तुम्हारी आयरा जिसे
तुम पहचानते नहीरहे
जीवन भर
जो तुम्हारे करीब रही
और तुम उसे खोजते रहे बादलों के भीतर

जाने से पहले
मैं चाहती हूँ कहना
तुम सीने से लगाये रखो
अपनीआयरा को
मैं फिर कभी आउंगी
और तुम करना सपने में एक औरत से बातचीत
जिसके दुःख कम नहीं हुए
इतने युगों के बाद

आज तुम नहीं रही आयरा
तुम घर में थी और मैं तुम्हे समंदर के किनारे खोजता रहा

तुम तकिये के भीतर थी और मैं तुम्हे फूलों के भीतर ढूंढता रहा
तुम चादर की सलवटों में थी छिपी
और मैं तुम्हे तितलियों में खोजता रहा

तुम गुसलखाने में थी और मैं तुम्हे एक झरने में ढूंढता रहा
तुम रसोईघर में थी
और मैं तुम्हे पुकारते हुए पार्क में चला गया था

तुम मेरी डायरी में थी
और मैं तुम्हे किताबों में खोजता रहा
शब्दों के भीतर

आज नहीं रही आयरा

जैसे सबको जाना होता है
इस दुनिया से एक दिन
जैसे सबकी याद बची रहती है
जैसे सबकी तस्वीर रहती है घर में

कितना तकलीफदेह है
एक आदमी का
किसी तस्वीर में बदल जाना
औरपूरी उम्र अकेले में

उस तस्वीर से बात करते हुए
ज़िन्दगी का इस तरह गुजर जाना

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