मंगलवार, 16 जुलाई 2019

बारिश को देख रहा था

आज मैं सिर्फ बारिश को देख रहा था/ इतने दिनों बाद वह आई थी मेरे शहर में /उसे देखना आज बहुत जरूरी था /इतने दिनों से उसे देखा भी कहाँ था / इसलिए आज मैं सिर्फ बारिश को देख रहा था/ एक एक बूंद गिरती जा रही थी / और मैं भीतर ही भीतर भीगता जा रहा था/ एक हल्के संगीत के साथ वह बरस रही थी/एक मधुर गीत के साथ वह नृत्य कर रही थी/ आज मैं सिर्फ बारिश को देख रहा था/बहुत दिनों के बाद उसे देख रहा था/ और याद कर रहा था / पिछली बार उसे कब देखा था/पहले बरामदे में बैठा उसे देख रहा था / फिर आंगन में जा कर उसे देखा / फिर छत पर जाकर उसे देखा / इतने सालों में क्या वह भी बदल गई है?क्या उसकी भाषा पर कोई असर हुआ है/क्या वही है उसकी पुरानी शैली बरसने की/आज मैं सिर्फ बारिश को देख रहा था /न आसमान को देख रहा था/ न बादल को देख रहा था /आज मैं सिर्फ बारिश को देख रहा था /उसकी आँखों को देख रहा था/ उसकी उंगलियों को देख रहा था/उसके होठों को देख रहा था/ उसे देखने के लिए ही दफ्तर से छुट्टी ले रखी थी/ आज मैं सिर्फ बारिश को देख रहा था / यह जानते हुए कि वह मुझे रत्ती भर नही देखेगी / कुछ भी नही मुझ से पूछेगी/ लेकिन मुझे तो उसे अपलक देखना है/ बारिश को देखना भी एकअलग तरह का सौंदर्य है/उस से संवाद करने का एक अलग आनंदहै /उसे चुम्बन लेने का एक अलग ही सुख है/ आज मैं सिर्फ बारिश को होते देख रहा हूँ/अपने जीवन मे कुछ नया घट ते देख रहा था। /

रविवार, 14 जुलाई 2019

वे चुप हैं

वैसे तो वे बहुत बोलते हैं                                       दिन रात कुछ न कुछ कहते  हैं                               पर आजकल वे बहुत चुप हैं                                     जब भी मारा जाता है कोई दंगे में                           होता है किसी का बलात्कार                                      वे लगा लेते हैं एक रहस्यमयी चुप्पी                                                                    मन की बात में भी वे कुछ नहीं कहते हैं                                                                      फिर एक दिन अचानक।                                        वे देने लगते हैं प्रवचन                                           किसी रैली में                                                                     वैसे तो वे बहुत बोलते हैं                                                                     पर अक्सर देखा है उनको वे चुप्पी लगा लेते हैं                                                                      बचते हैं सवालों से                                                                 जवाब वे नहीं देते हैं                                                                     उन्हें मालूम है कहाँ खामोशी की जरूरत है                                                                     कहाँ जरूरी है बोलना                                                          कहाँ कन्नी काट लेनाहै                                                              कहाँ  निकालना है पतली  गली से                             वैसे तो वे दिन रात बोलते हैं                                                                     पर  अक्सर वे मौन हो जाते                                                                चादर तान कर सो जाते हैं ।

शनिवार, 13 जुलाई 2019

किसी को नही मालूम कौन लौटेगा

हिंदी के एक कवि की कविता में                            जो  भागी हुई  लड़कियां थी                                   वे कभी लौटकर नही आएंगी                            तालाब में जो डूब गई थी वो सातों लड़कियां               वे फिर कभी जिंदा नही लौटेंगी                           क्या केवल यह रात लौटेगी जो दिन प्रतिदिन स्याह होती जा रही है  फिर कौन लौटेगा युद्धस्थल से सिपाही या राजा या दर्शक                                             किसी को नही मालूम 

प्रेम याचना की वस्तु नही है

अगर वृक्ष छाया देने से  कर दें  ,  इनकार                                                    तो उनसे मैं छांव कैसे मांगू                                            अगर चराग नही जले मेरे कमरे मे                                                                      तो उनसे  कैसे कहूँ कि वो मुझे रौशनी दें                           अगर बादल नही बरसे मेरे आंगन में                       तो    कैसे कह दूं  उनको कि  दो बूंद से वे भिंगोये मुझ को                         अगर कोई नही चाहे करना मुझ से प्रेम                       तो उस से प्रेम की उम्मीद क्यों करूँ                          पेड़ों से चरागों से  बादलों से क्या मैंने एक स्वार्थ का नाता ही ब नाया था  अब तक  ? 

गुरुवार, 11 जुलाई 2019

बजे जब मर रहे थे

बच्चे जब मर रहे थे
वे शपथ ग्रहण कर रहे थे
बच्चे जब मर रहे थे
वे मैच का स्कोर पूछ रहे थे
बच्चे जब मर रहे थे
वे जय श्रीराम के नारे लगा रहे थे .
बच्चे जब मर रहे थे
वे वन्दे मातरम गा रहे थे
बच्चे जब मर रहे थे
तब चुनाव ख़त्म हो गया था
वे बच्चे की लाशों पर अब तिरंगा फहरा रहे थे .
बच्चे नही मर रहे थे
यह पूरा देश मर रहा था
यह एक नया इंडिया था
जो मरते हुए देश मे इस तरह जन्म ले रहा था.

प्रधानमंत्री को खामोश नही रहना चाहिए

जब किसी मासूम बच्ची के साथ बलात्कार हो
प्रधानमंत्री को खामोश ही रहना चाहिए

जब अस्पताल में बच्चें मरने लगें
प्रधान मंत्री को चुप ही रहना चाहिए

जब किसी गरीब की झोपडी दंगे में जला दी जाये
प्रधान मंत्री को मौन ही रहना चाहिए

प्रधान मंत्री आखिर प्रधान मंत्री है
उन्हें एक शब्द भी बोलना शोभा नही देता
आखीर उनकी भी एक गरिमा है
वह हर मामूली सी बात पर अपनी राय तो नही दे सकते

वे अपनी एक टांग हवा में उठाकर
आपको तत्काल न्याय जरूर दिला सकते है

वे अपनी गर्दन शुतुरमुर्ग की तरह निकाल कर
बेरोजगारी भी पल में मिटा सकते है

वे एक नाक बंद कर गहरी साँस लेते हुए
एक नया भारत भी बना सकते हैं.

आप अभी थोड़ा और इंतज़ार कीजिये
प्रधान मंत्री को कुछ और दिनों तक
मौन व्रत में ही रहने दीजिये
राष्ट्र निर्माण में वे लगे हैं दिन रात
आप उनके इस नेक कार्य में खलल न डालिए . हो सके तो अपने कैमरे से उन्हें थोड़ा शूट कर लीजिए

हत्यारे को बदनाम मत करो

अगर किसी ने किसी की हत्या कर दी
तो हमे बहुत दुःख है
पर हत्यारे को तो कम से कम बदनाम मत करो

अगर किसी ने किसी महिला का बलात्कार किया
तो कानून अपना काम करेगा
पर बलात्कारी को तो कम से कम बदनाम मत करो.

अगर किसी ने दंगे में किसी का घर जला दिया
तो वह एक दिन पकड़ा जायेगा
पर दंगाई को तो कम से कम बदनाम मत करो

अगर किसी ने महफ़िल में कोई गलत शेर पढ़ दिया

तो यह कहकर कि यह ग़ालिब का लिखा हुआ नही है उसके लिए ग़ालिब को तो बदनाम मत करो

ध्रुवस्वमिनी

ध्रुवस्वामिनी
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कहाँ हो तुम आजकल
बहुत साल पहले तुम्हे देखा था
एक नाटक में
तुमसे मिलने गया
तुम गायब हो चुकी थी

कई दिनों तक था इंतज़ार करता रहा ग्रीन रूम में

अब तुम दिखती नही हो
मुझे लगा
शायद तुम किसी दिन
किसी धारावहिक में दिख जाओ
या किसी फिल्म में
या किसी स्कूल या कालेज में
वाराणसी में भी तुम नही मिली
सुंघनी साहू के जर्जर मकान के पीछे
या
गंगा तट पर

सुना कि तुम कई साल अस्पताल में रही बीमार
भूल गया तुम्हे यह निष्ठुर संसार
खोजता रहा मैं तुम्हे
यहाँ से वहां न जाने कितनी बार .

लौट आओ
तुम जहाँ हो ध्रुवस्वामिनी
अब तुम्हारा नाम
मैंने वरण कर लिया है

तुमको ही आत्मसात कर लिया है
अब इसी नाम से लिखूंगा
कि मेरी पीड़ा को जगह मिले
इसी नाम से यात्रा करूँगा
कि कोई जगह मिल जाये ट्रेन में

ध्रुव स्वामिनी
मैं तुम्हारा कोई स्वामी नही हूँ
तुम भी मेरी कोई स्वामिनी नही हो

अब इस कलम में जब भी स्याही भरूँगा
कलम से एक बार ध्रुव स्वामिनी जरुर बोलूँगा
अपनी कहानी लिखते हुए
तुम्हारी कहानी जरुर लिखूंगा

इतने दिन तक तुम कैसे नाटक में जिन्दा रही
फिर कैसे मर गयी
किसी को पता भी नही चला

किसी के प्रेम में नाम बदलने का एक किस्सा पहले ही ओ चूका है
इतिहास में .

ध्रुवस्वामिनी
तुम फिर लौट कर आयी हो
जिन्दा होकर
मैं आज की रात
तुम्हे अपने बिस्तर पर लिटा भी नही सकता
दोनों बाहों में ज़ख्म ही ज़ख्म है
बाहुपाश में भी ले नही सकता
होटों पर इतने छाले है

चुम्बन भी नही ले सकता तुम्हारा!

विमल कुमार (उर्फ़ ध्रुवस्वामिनी )

वासवदत्ता

वासवदत्ता!
इतने दिनों के बाद तुम आज आयी हो
जब आग लग चुकी मेरे शहर में
जल कर राख हो चूका मेरा शयन कक्ष

नदियाँ सब सुख गयी
मछलियाँ सब छटपटा कर मर गईं

आयी हो तुम भी लडखडाते हुए

पैरों की हड्डी तुम्हारी टूट चुकी है

कितने दिनों तक याद करता रहा वासवदत्ता
तुम्हे नही मालूम
कितने शहरों में कितनी सड़कों पर
कितनी शामों को
कितनी रातों को
खोजता रहा तुमको

अब आयी हो तुम्हारी जिस्म में खरोंचे है
खून से भीगे हैं तुम्हारे अन्तः वस्त्र
नोच लिया है तुम्हे भेडिये ने
गिद्धों ने भी नही छोड़ा है

वासव दत्ता
तुम इतिहास के बहुत बुरे दौर में आयी हो
मेरी सांस जब उखड़ने लगी है.
नौकरी जब छुट गयी है
आसमान से बरस रहे अंगारे

वासव दत्ता
तुम मुझे क्या सौंपने आयी हो
क्या देने आयी हो
एक चिराग लेकर अपने हाथो में
कागज़ की एक नाव लिए आयी हो

अपनी साँसों में किसी सुबह की खुशबू लिए
किसी सपने और उम्मीद की किरण लिए तुम आयी हो

बहुत देर हो चुकी है
आततायी चरों तरफ से आ गये हैं.
घोड़े हिनहिना लगे हैं.रथ का पहिया धंस गया है तलवारें तन चुकी है

वासवदत्ता
तुम अपनी मृत्य से
मुझे जीवन देने आयी हो
लेकिन मैंने भी तय कर लिया है
मैं भी मरकर तुम्हे एक रौशनी दूंगा

अपनी सांसकी जिन्दगी दूंगा

वासव दत्ता
तुम मुझ से इस जंगल में मिलने आयी हो
जहाँ सियार बोल रहे हैंऔर एक चाँद चमक रहा है

वासव दत्ता
तुम दर असल एक फुल बन कर आयी है
जिसके इस गर्मी में झुलस ने की आशंका बढ़ गयी है..
तुम जिस चीज़ के लिए आयी हो
खत्म होती जा रही है तेजी से इस दुनिया में

इस बार तुम आयी हो
तो लगता ही नही
कि तुम आयी हो .

वसंतसेना

रात की इस नीरवता में
क्या गहरी नींद में सो गई हो वसंत सेना!
बोल रहे है झींगुर टहक रहा है चन्द्रमा
आश्चर्य चकित है दिगन्त
फुसफुसा रहा हूँ मैं तुम्हारे कानो में
ठीक कर लो तुम अपने अंतः वस्त्र
देखो चमकने लगी है बिजली
बदल घुमड़ने लगे है
वसंत सेना !
अब उठ जाओ
रात बहुत गहरी हो गई है
तारे भी ऊँघने लगे है
सुबह होने वाली है
स्वप्नों को अपने तकिए में रख लो
तुम्हारी थकान चादर की सलवटों में दिख रही है
तुम्हारे होठ कुछ कह रहे है
तुम्हारे वक्ष भी कुनमुना रहे है
तुम्हारे उर्वर प्रदेश में छटपटा रही हैं मछलियां
अतृप्त ही तुम आई थी
अतृप्त ही रह जाओगी
धोका देते रहे हैं तुम्हे तुम्हारे प्रेमी
छल करते रहे है तुम्हारे संगी
वसंत सेना !
तुम आई हो इतिहास से बाहर निकलकर
एक ऐसे दौर में जिसका इतिहास जब लिखा जाएगा झूठ की मीनारें होंगी दम्भ और अहंकार की छतें होंगी ताकत के बुर्ज होंगे
वसंतसेना !
यह तुम्हारा समय नही है
लेकिन तुम्हे इसी समय मे उठना है अपनी नींद तोड़कर
उस सपने को पूरा करने के लिए जिसे तुम्हारी आंखे अब देख रही है ।