मंगलवार, 2 सितंबर 2014

अपरिचय

 अपरिचय
तुमसे हुआ अपरिचित
तो उस वृक्ष से भी हो गया
अपरिचित
जिसके झरते पत्तों के नीचे
मिला था तुमसे पहली बार
तुमसे हुआ अपरिचित
तो फिर  नदी ने भी मुझे नहीं पहचाना मुझे
जिसकी लहरों में हमने अपने पांव भिगोए थे
साथ साथ

तुमसे हुआ अपरिचित
तो उस बेंच से भी होगया
अपरिचित
चाय के उस प्याले से भी
उस भाप से भी जो निकल रहा था
यहाँ तक कि उस हरी घास से भी
जिस पर गिरे थे दो बूँद आंसू कभी

तुमसे जब हुआ अपरिचित
तो चाँद तारों से भी होगया
जिन्हें मैंने देखा था कई  रातों में तुम्हारे साथ
इतना परिचय भी किसी से ठीक नहीं
कि जब हो जाओ अपरिचित
तो अपनी सांस और रक्त से भी हो जाओ
जैसे अपरिचित
हो गया मैं
एक दिन अपनी परछाई से भी अपरिचित
क्योंकि दो परछाई यां मिलकर कभी एक हो गयीं थी कभी
एक सांस में दो साँसे
एक रक्त में दो रक्त होने लगा था
प्रवाहित.
इतना परिचय भी ठीक नहीं
कि जब हो जाये अपरिचित
कि पास से गुजरे और
एक दूसरे को पहचान भी नहीं सके
बहुत तकलीफ देह है मनुष्य के लिए
परिचित से फिर अपरिचित 
विमल कुमार

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