अगर नहीं डूबी होती मेरी
नाव समंदर में
नहीं फेंक दिया होता लहरों
ने मुझे तट पर
नहीं काटा गया होता मुझे
जंगल में एक पेड़ की तरह
नहीं उजाड़ा गया होता
दंगे में एक घर की तरह
फिर क्यों मांगता तुमसे इस
तरह प्यार
जीने के लिए
अपनी बची खुची जिन्दगी में
तुमसे कुछ नहीं सिर्फ अपने
हिस्से का ही चाहिए था प्रेम
जैसे
अपने हिस्से की सुबह
किसी नदी के किनारे
अपने हिस्से की शाम
चाहता हूँ पार्क में बैठ कर
अपने हिस्से की शाम
अपने हिस्से का चाँद
छत पर टहलते हुए.
अगर नहीं उडती धूल इतनी
नहीं होते इतने कांटे रस्ते
में
इतने वियाबान शहर में
तो क्यों मांगता तुमसे थोडा
सा प्रेम
ये जानते हुए कि ये मांगने
की चीज़ नहीं है
इस संसार में
कितना कृतज्ञ हूँ
तुमसे पाकर ये प्रेम
मुझे तो सिर्फ अपने हिस्से
की ज़िन्दगी चाहिए
तुम किसी और से भी कर सकती
हो प्रेम
किसी और के साथ रहकर जी
सकती हो
ये खूबसूरत ज़िन्दगी
मुझे तो सिर्फ अपने हिस्से
का सुख चाहिए
तुम्हारे हिस्से का दुख
लेकर
जो एक आसमान की तरह फैला
हुआ है
यहाँ से वहां तक
तुम्हारी नींद में भी .
विमल कुमार .
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