शनिवार, 26 जुलाई 2014

बारह घंटे की ज़िन्दगी

अब बची है तुम्हारे पास
सिर्फ बारह घंटे की ज़िन्दगी 

क्या क्या करोगी तुम 
इन पलों में 
किसको याद करोगी 
किस को लिखोगी कोई चिठी 

कहाँ जाओगी तुम घूमने 
कितनी नीद करोगी पूरे 
कितने सपने देखोगी
बारह घंटे में

कितनी दौड़ लगाओगी मैदानों में
कितनी सांस लोगी अपने सीने में
कितनी दूर तक पुकारोगी
किसी को आवाज़ लगा कर
कितने ज़ख्मों पर
कितने पैबंद जडोगी


कितने फूल खिलेंगे
कितने तारे चमकेंगे
कितना बरसेगा पानी
इन बारह घंटों में

कितने खूबसूरत
कितने कीमती हैं ये पल

जब बरामदे में बैठी हो मौत
तुम्हारा इंतज़ार करते
बारह घंटों से
कि कब हो जाये
कोई धमाका
कोई धुंआ
कोई लपट
घेर ले तुमको
और देखती रहे ये दुनिया
ये ज़ुल्म जो ख़त्म नहीं हो रहा है
सदियों से धरती पर

बारह घंटे में तुम्हे जन्म देना भी है
एक नयी ज़िन्दगी किसी को

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