रविवार, 20 जुलाई 2014

तुम हीबता दो

अब तुम ही बता दो
अब तुम ही बता दो
कितनी हो आबादी
कि बलात्कार भी लगने लगे जायज़

कितनी सड़कें हो शहर में
कि बहता खून सुन्दर दिखाई दे सबको

कितने हो मकान
कि दंगे में उजाड़ जाये घर
तो तकलीफ न हो किसी को 

अब तुम ही बता दो
कितना हो पूंजी निवेश
कि भ्रष्ट्राचार भी लगने लगे खूबसूरत

कितनी रोज जाए बिजली
कि अँधेरे में हम जीने के हो जाएँ आदि
कितनी प्यास लगे हम को
कि बिना पानी के रहने की हम डाल लें आदत

अब तुम ही बता दो
कि कितना हो समाजवाद
कि इस मुल्क को लूटा जा सके बखूबी
कि कितना हो लोकतंत्र
चुनाव को जीता जा सके छल से

कितनी हो गरीबी
कि उसकी परिभाषा से
उड़ाया जा सके मजाक

अब तुम ही बता दो
कितना बने हम इंसान
कि हैवानियत बची रहे
हमरे भीतर
और शर्म भी न आये

कितनी करें हम तरक़्क़ी
कि हो जाये ये जीवन बर्बाद
..
कितना हो ज़ुल्म हम पर
कि तुमको दिखाई न दे

अब तुम ही बता दो
कितना मनाओगे अभी जश्न
कि तुम्हारी नींद न टूटे कभी
ताक़त के इस नशे से
विमल कुमार 

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