सोमवार, 28 जुलाई 2014

कहाँ गया मेरा चाँद ?

कहाँ  गया मेरा चाँद
लगता है वो कभी था ही नहीं मेरे आसमान पर
अगर वो होता
तो जरूर आता मेरे बाम पर
उतरता सीढियों से नीची धीरे  धीरे
फिर जाता बैठ मेरी खाट पर
आखिर कहाँ गया मेरा चाँद
क्या वो खो गया किसी मेले में
एक बच्चे की तरह
क्या उसे मेरे घर का पता नहीं मालूम
क्या उसे याद नहीं  
मेरे टेलीफ़ोन का नंबर
वो अगर खो गया रास्ता
तो एक फ़ोन कर लेता कहीं से
लगता है मुझे कि वो था ही नहीं इस कायनात में
अगर होता तो जरूर इस धरती का चक्कर लगता
कभी तो  गिरती चांदनी पेड़ों पर
बादलों की ओट से कभी तो निकलता
आखिर कहाँ चला गया मेरा चाँद
बिना बताये किसी को
रजिस्टर पर उसकी हाजरी  लगी है
कमरे में उसके एक प्याली चाय की पडी है
एक अधजले सिगरेट का एक टूकड़ा भी है
इसका  मतलब वो था यहाँ कुछ देर पहले
लेकिन फिर भी मुझे न जाने क्यों लगता है
कि वो कभी था ही नहीं
वो सिर्फ एक ख्याल था खूबसूरती का
चाँद बनकर आ जाता था कभी कभी
फिर भी वो कहाँ चला गया समझ में नहीं आता
ठीक एक दिन पहले ईद के

आखिर कहाँ चला गया मेरा चाँद
मेरी हथेलियों से फिसलकर
निकलकर उँगलियों की सुराख से बाहर
उसे एक ख़त लिखता हूँ अभी
स्पीड पोस्ट से पूछता हूँ
कहीं वो नाराज़ तो नहीं हमसे
आखिर मेरा चाँद कहाँ  चला गया
किस जगह लिखेगी
उसकी गुमशुदगी की रिपोर्ट
कई सालों से मैं अपने इस चाँद को खोज रहा हूँ
हाथ में लिए उसकी रिपोर्ट
हर साल ईद के दिन  उसे याद करते हुए
आखिर मेरा चाँद कहाँ चला  गया
 मुझे आज भी कर जाता बेचैन रातों में ..............


विमल कुमार

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