शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

ये ज़िन्दगी है.बनिए की कोई किताब नहीं.

अब तक  कुछ खोज रहा था.मै
पर क्या खोजा
क्या पाया
नहीं लगाया
इसका हिसाब कभी

किसी को भी
नहीं बताया.
खुद को भी.
क्या पाया
जीवन में
क्या खोया.

कितना हंसा
कितना रोया.

आखिर कितना किया जाये
गुण भाग
कितना घटाव
जब है सबके सीने में
कोई न कोई घाव

दोस्तों ,जब भी मिले मौका
थोडा जी लो
ये ज़िन्दगी है
कोई बनिए की किताब नहीं.
रखो अपने पास इसका
 कोई  हिसाब नहीं.


विमल कुमार.


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