बुधवार, 9 अप्रैल 2014

निर्वासित

इस से बड़ी तकलीफ और क्या हो सकती है
कि जिस पानी से हम अपनी प्यास बुझाते रहे उसमे ज़हर मिला दिया गया हो.
जिस रौशनी के पीछे चलते आ रहे  थे अब तक वो  अँधेरे से जा मिला हो.
जिन  किताबों को पढ़कर जवान  हुए ,उनके

हर पन्नों   पर   अब उनकी ही तस्वीर हो
उनकी ही जयकार हो हर समरोहीं में

इस से अधिक आशचर्य किस बात पर
कि जिन  फूलों  को सूंघे तो उन के भीतर से खून बहने लगे,
चादरों के अन्दर से आधी  रात में एक पंजा  निकल आये  और सीधे गर्दन तक जा  पहुँच जाये.

चमगादड़ों और चीलों से धर भर जाएँ हमारा
मेज़ की दराज़ में बिच्छू और सांप नज़र आये.
इस से बड़ी दुखद घटना क्या हो सकती हो
कि माँ के गर्भ से एक मरा शिशु पैदा हो.

लेकिन इस वक़्त यही हो रहा है
जिसकी हमे उम्मीद नहीं थी अब तक
इस वहसी और पागलपन के दौर में
अपना मुल्क  भी पराया लगने लगा है.
अपने ही शहर से निर्वासित हो गए हम

विमल कुमार.






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