शनिवार, 5 अप्रैल 2014

क्या तुम रौशनी बन कर आओगी?

क्या तुम एक फूल बनकर खिलोगी
यहाँ तो सिर्फ कांटे ही कांटे बिछे हैं ,आयरा
क्या तुम आसमान बनके  छा ओगी
सर के ऊपर एक छत भी नहीं है आयरा
क्या तुम परिंदे बनकर  उडोगी हवा में
यहाँ चारो तरफ पिंजरे लगे हैं आयरा
क्या तुम बादल  बनके बरसोगी
यहाँ तो धरती ही सुख रही है आयरा.
क्या तुम सूरज बनके चमकोगी
यहाँ तो धुप ही नहीं निकल रही है आयरा
क्या तुम अपने वक़्त का इबारत बनोगी
यहाँ ज़ुल्मों सितम बहुत बढ़ रहा है आयरा.
क्या तुम इसी तरह दर्द सहती रहोगी ज़िन्दगी भर
या कभी अपने घर से बहार निकलोगी आयरा
क्या तुम कल इस चौक पर मिलोगी
यहाँ एक जुलूस निकलने वाला है आयरा.
क्या तुम रौशनी बन कर आओगी.
यहाँ बहुत अँधेरा फैलता जा रहा है आयरा.


विमल कुमार

1 टिप्पणी: