गुरुवार, 11 जुलाई 2019

आम्रपाली

वह मैं ही थी
जिसे तुम आम्रपाली समझ बैठे थे
मेरे नृत्य पर थे तुम मुग्ध
पर तुम्हे नही पता होगा
एक राजनर्तकी की पीड़ा

वह मैं ही थी किले की ओट में खडी
जब किला ही ढह गया था
उसके बुर्ज से डरावनी चीखें निकलती थी

वह मैं ही थी इतिहास की किताब से बाहर निकल कर
एक गली की नुक्कड़ पर
फब्तियां कसी जा रही थी
गिद्ध दृष्टि मेरे वक्ष पर ठहर जाती थी
कटी प्रदेश पर निगाहें टिकी हुई

वह मैं ही थी
जिसे तुमने ध्रुव स्वामिनी मान लिया था
एक समय से निकल कर  
दूसरे समय में जा पहुँची थी जरुर
पर थी एक शरीर
प्यासी थी मन से
बार बार तड़प कर रह जाती थी
कांच घर के भीतर

वह मैं ही थी
एक नाव पर सवार हिचकोले खाती हुई
प्रत्यक्ष दर्शी थी
एक घडियाल ने खींच लिए थे अपने जबड़े में मेर हाथ
बच गयी तो समुद्र ने झे लील लिया था

वह मैं ई थी
जो बार आर जी उठती हूं
इतने अपमान और अन्याय दमन के बाद
दौड़ी चली आती हूँ
तुम्हारे सीने से चिपकने के लिए
जबकि तूफ़ान मुझे हर बार रेत पर पटक देता है
वह मैं ही थी जिसे तुम हर बार समझने की भूल करते हो
क्योंकि तुमने मुझे ठीक से पढ़ा नही आजतक ।

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