गुरुवार, 11 जुलाई 2019

वसंतसेना

रात की इस नीरवता में
क्या गहरी नींद में सो गई हो वसंत सेना!
बोल रहे है झींगुर टहक रहा है चन्द्रमा
आश्चर्य चकित है दिगन्त
फुसफुसा रहा हूँ मैं तुम्हारे कानो में
ठीक कर लो तुम अपने अंतः वस्त्र
देखो चमकने लगी है बिजली
बदल घुमड़ने लगे है
वसंत सेना !
अब उठ जाओ
रात बहुत गहरी हो गई है
तारे भी ऊँघने लगे है
सुबह होने वाली है
स्वप्नों को अपने तकिए में रख लो
तुम्हारी थकान चादर की सलवटों में दिख रही है
तुम्हारे होठ कुछ कह रहे है
तुम्हारे वक्ष भी कुनमुना रहे है
तुम्हारे उर्वर प्रदेश में छटपटा रही हैं मछलियां
अतृप्त ही तुम आई थी
अतृप्त ही रह जाओगी
धोका देते रहे हैं तुम्हे तुम्हारे प्रेमी
छल करते रहे है तुम्हारे संगी
वसंत सेना !
तुम आई हो इतिहास से बाहर निकलकर
एक ऐसे दौर में जिसका इतिहास जब लिखा जाएगा झूठ की मीनारें होंगी दम्भ और अहंकार की छतें होंगी ताकत के बुर्ज होंगे
वसंतसेना !
यह तुम्हारा समय नही है
लेकिन तुम्हे इसी समय मे उठना है अपनी नींद तोड़कर
उस सपने को पूरा करने के लिए जिसे तुम्हारी आंखे अब देख रही है ।

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