सोमवार, 31 अगस्त 2015

कबूलनामा

कबूलनामा

एक लम्बी  फेहरिश्त है  मेरे गुनाहों  की
आज मैं  दायर करता हूँ अपना हलफनामा
जहाँ मैं लड़ता रहा अपना मुक़दमा
जिंदगी  की अदालत में
मुझे अब कबूल कर लेने चाहिए  अपने सारे  जुर्म
आखिर कब तक मैं भागता फिरता रहूँगा एक हत्यारे की इधर उधर
कब तक बचता रहूँगा पुलिस की निगाह से
अपना वेश बदल कर कब तक दू सरे शहर में  
 करता रहूँगाइस तरह जिन्दगी  बसर

आज मैं अपने  ही सामने स्वीकार करता हूँ
अपना हर जुर्म
अपनी पत्नी को मैंने ही मारा था
बिना उसकी हत्या किये
वो घुट घुट कर मरती रही मेरे स्वार्थ भरे  प्रेम में
उसकी इच्छाओं के विरुद्ध मैंने पायी थी चाँद  खुशियाँ जीवन में
कितना लालच छिपा रहा मेरे भीतर
कितना क्रोध
कितना अहंकार  
एक जुर्म मुझ पर ये था
कि अपनी तारीफ़ खुद करता रहा
खुद को अमर करने के लिए
सारे प्रपंच करता रहा अबतक
इतिहास में थोड़ी जगह के लिए रहा लालायित
अपनी सुविधाओं के लिए सारे  इंतज़ाम जुटाता रहा
अपनी ही तस्वीरें खुद खींच कर डालता रहा
अपने ही बारे में बोलता रहा हर जगह
ईर्ष्या की आग में जलता रहा

एक जुर्म यह है कि मैं जीवन भर बटोरता रहा
परले दर्जे तक कंजूस रहा
बचता रहा अपना सब कुछ लुटाने से

एक जुर्म ये भी रहा
दिन भर आईने ,में  अपना चेहराही  निहारता रहा
बार बार पढता रहा अपना लिखा हुआ
इतना आत्ममुग्ध होना भी ठीक नहीं

मरने से पहले एक बार ठीक ठीक कर लूँ
 अपना मूल्याङ्कन
अपनी आलोचना से कुछ सीख् 

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