सोमवार, 31 मार्च 2014

परछाई की तरह

इसी शहर में तुम आयी थी कभी
मेरे लिए दौडती हुई
एक नदी की तरह

इसी शहर में तुम गायब हो गयी
एक दिन गौरय्या की तरह

इसी पेड़ पर तुम एक दिन खिली थी
मेरे लिए एक फूल की तरह
इसी पेड़ पर
तुम झर  गयी एक सूखे पत्ते की तरह

इसी आसमान पर
 तुम एक रात कौंधी थी बिजली की तरह
इसी आसमान पर तुम टूटकर गिर  गयी
एक तारे की तरह

इसी आईने में तुम दिखी थी
मुझे एक दिन
एक खूबसूरत स्त्री की तरह



ये कैसी ज़िन्दगी की   आंधी थी
एक दिन तुम दिखने लगी
 इसी  आईने में
 एक परछाई की तरह.

विमल कुमार



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