गुरुवार, 25 जून 2015

स्मृति मेबरसात

  स्मृति में बरसात

 करीब तीस साल बाद उस से मेरी यह चौथी मुलाक़ात थी
अगर थोडा सच कहूँ तो कायदे से मेरी पहली मुलाक़ात थी
अगर और बोलूं जरा साफ़ साफ़
तो वो मेरी मुलाक़ात भी नहीं थी
तीस साल बाद वो पूल भी अब कहाँ पूल था
जिसके नीचे मैं खडा था
टूट ते हुए आसमान के नीचे
मैं भी कहाँ वो मैं  था  
जो था पहले तीस साल
आधे बाजू की एक कमीज़ पहने
अगर आपने हुलिए का बयां करूँ
तो मैं आंधी में गिरे एक पेड़ की तरह था
उतना ही ज़र्ज़र जितना वो पूल था
उस से तीस पहले जब मिला था
तो अब वो शाम भी नहीं थी
क्योंकि इस शहर की शामें भी बदल चुकी थी
अब आसमान पर थोड़ा चाँद भी तिरछा हो गया था
तारे भी थोडा उदास हो गए थे
रोशनी भी अब कहाँ रौशनी थी
पर वो थी आज मेरे सामने
अपने रंगों और  पंखों के साथ
अपने सपनों और अपनी सुन्दर इच्छाओं के साथ
सिर्फ वक़्त ही नहीं था मेरे साथ
मेरी घड़ी भी मुझको धोखा  दे चुकी थी  
अब सिर्फ एक कागज़ था
एक कलम थी
स्याही थी
इसलिए तीस साल पहले मेरी उसकी मुलाक़ात को
तीस साल बाद की मुलाक़ात से जोड़कर देखा नहीं जा सकता था
अगर सच कहूँ तो पहली मुलाक़ात भी पहली मुलाक़ात कहाँ थी
कितना कम जान पाया था उसे आज तक
कितना कम बता पाया था उसे आज तक
कितना उसे छिपा पाया था
कितना सच अपनाउसे  सुना पाया था
कम नहीं होते हैं तीस साल जीवन के
कम नहीं होते है इतने दिन किसी मुल्क के
छह चुनाव हो चुके थे
कई पार्टियों की सरकारें आकर चली गयी थी
कई वादे सब धुआं हो चुके थे
कई घोषणायें दम थोड चुकी थीं
मैं भी पहुँच गया था एक सूखते हुए कुएं के किनारे
प्यास मेरी भी बढ़ चुकी थी
बहुत कम बची थी रात
ज्यादा अँधेरा था
बहुत कम थी सांस
हवा भी अधिक नहीं थी
बहुत कम गले में आवाज़ बची थी
तीस साल में बहुत धुल उड़ चुकी थी
भूकंप के झटके
और तूफ़ान भी आकर चले गए थे
मकडी के जले घरों में लग चुके थे
तीस साल में मेरी उस से मेरी ये चौथी मुलाक़ात थी
  पर कायदे से उससे टेलीफ़ोन पर भी मेरी कोई बात नहीं थी
बस एक मेज़ थी
काफी का प्याला था
बहार बारिश की कुछ बूंदें थी
भीतर एक दस्तक था
थोड़ी सी खिड़की खुली थी
परदे थोड़े खिसके थे
वो अचानक अजीब सी मुलाक़ात थी
 आखिर वो कितनी देर तक ही मेरे साथ थी


स्मृति में बची अब  सिर्फ
उस दिन की बरसात थी

विमल कुमार 

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