ध्रुवस्वामिनी
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कहाँ हो तुम आजकल
बहुत साल पहले तुम्हे देखा था
एक नाटक में
तुमसे मिलने गया
तुम गायब हो चुकी थी
कई दिनों तक था इंतज़ार करता रहा ग्रीन रूम में
अब तुम दिखती नही हो
मुझे लगा
शायद तुम किसी दिन
किसी धारावहिक में दिख जाओ
या किसी फिल्म में
या किसी स्कूल या कालेज में
वाराणसी में भी तुम नही मिली
सुंघनी साहू के जर्जर मकान के पीछे
या
गंगा तट पर
सुना कि तुम कई साल अस्पताल में रही बीमार
भूल गया तुम्हे यह निष्ठुर संसार
खोजता रहा मैं तुम्हे
यहाँ से वहां न जाने कितनी बार .
लौट आओ
तुम जहाँ हो ध्रुवस्वामिनी
अब तुम्हारा नाम
मैंने वरण कर लिया है
तुमको ही आत्मसात कर लिया है
अब इसी नाम से लिखूंगा
कि मेरी पीड़ा को जगह मिले
इसी नाम से यात्रा करूँगा
कि कोई जगह मिल जाये ट्रेन में
ध्रुव स्वामिनी
मैं तुम्हारा कोई स्वामी नही हूँ
तुम भी मेरी कोई स्वामिनी नही हो
अब इस कलम में जब भी स्याही भरूँगा
कलम से एक बार ध्रुव स्वामिनी जरुर बोलूँगा
अपनी कहानी लिखते हुए
तुम्हारी कहानी जरुर लिखूंगा
इतने दिन तक तुम कैसे नाटक में जिन्दा रही
फिर कैसे मर गयी
किसी को पता भी नही चला
किसी के प्रेम में नाम बदलने का एक किस्सा पहले ही ओ चूका है
इतिहास में .
ध्रुवस्वामिनी
तुम फिर लौट कर आयी हो
जिन्दा होकर
मैं आज की रात
तुम्हे अपने बिस्तर पर लिटा भी नही सकता
दोनों बाहों में ज़ख्म ही ज़ख्म है
बाहुपाश में भी ले नही सकता
होटों पर इतने छाले है
चुम्बन भी नही ले सकता तुम्हारा!
विमल कुमार (उर्फ़ ध्रुवस्वामिनी )
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