शुक्रवार, 28 मार्च 2014

तुम्हे नहीं मालूम

तुम्हे मालूम नहीं
मै कितनी दूर निकल आया हूँ
तुम्हे पुकारते हुए
जंगल में

कितनी दूर चली गयी है
मेरी  आवाज़
पर्वतों के उस पार
तुम्हे खोजते हुए

कितनी दूर निकल गयी है मेरी परछाई
तुम्हारी परछाई के पीछे पीछे
मेरी तन्हाई भी चली गयी है
तुम्हारी तन्हाई को ढूंढते हुई घाटियों में


तुम्हे नहीं मालूम
मै कितने गहरे नीचे उतर आया हूँ  समुद्र के
तुम्हारी लहरों को खोजते हुए
खोजते हुए तुम्हारे शंख
तुम्हारी सीपियाँ

कितना दूर ऊँचा उड़ने लगा हूँ
तुम्हारे रंगों को खोजते
आसमान में

तुम्हारी आवाज़ का पीछा करता हुआ
पीछा करता हुआ तुम्हारे सपनों
तुम्हारे पतंगों को
आ गया हूँ
भटकते हुए इस रेगिस्तान में

कितना खोज लूं मैं तुम्हे  जर्रे जर्रे में
नहीं मिलोगी तुम मुझे कभी भी
तुम जो एक गंध में तब्दील हो गयी हो
तब्दील हो गयी हो एक तरंग में

एक सांस में
नसों के भीतर एक बेचैनी में
एक गहरे आवेग में


अब सिर्फ तुम्हे महसूस किया जा सकता है
पर कभी भी पाया नहीं जा सकता इस संसार में

लेकिन मरने के बाद भी छटपटाती रहेगी मेरी आत्मा
 खोजती रहेगी तुम्हे हर अँधेरे में
ये जानते हुए कि तुम नहीं मिलोगी
 कभी किसी  हाड मांस की शक्ल में

विमल कुमार



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