रविवार, 19 जून 2016

पिता बनकर

पिता बनकर ही मैंने जाना
कि क्या थे मेरे पिता
क्यों वो धूप में खड़े रहे
एक वृक्ष की तरह
जीवन भर मेरे लिए
क्यों उनका छाता टूट जाता रहा बार बार
क्यों वो भीग जाते रहे
बारिश में अक्सर
फिर उन्हें जुकाम हो जाता रहा
पिता बनकर ही जाना
अस्पताल की लम्बी लाईन में लगकर
सीने में जमा कफ आखिर जाता क्यों नहीं है
बचपन में कहाँ जान पाया था
पिता को ठीक से
घर आते ही
वह क्यों बरस पड़ते थे हम सबपर
माँ को झिड़क क्यों देते थे
पिता बनकर ही जान पाया हूँ
दफ्तर से कितना अपमानित होकर
लौटना पड़ता है शाम को
पिता की फटी हुई कमीज़
का रहस्य भी जाना
दो लड़कियों का पिता बनकर ही
ड्राइंग रूम में पिता की तस्वीर लगी है आज भी
वे भी मुझसे पूछ ते हैं उसकेभीतर से अक्सर
क्या तुम एकसफल पिता बन सके
या हो मेरी तरह विफल
मैं भी कहने लगा हूँ
अपने पिता की तरह
ज़माना बहुत ख़राब है
शाम होते ही घर लौ ट जाओ बच्चों
खीझने लगाहूँ
बा तबात प र पिता की तरह
आसमान को देखता रहता हूँ चुपचाप
बरामदे में बैठा
मैं भीअपने पिता की तरह बुढा हो गयाहूँ
दोनों लड़कियां अभी कुंवारी हैं
बेटा भीबेरोजगार
जिस तरह मैं रहा बेरोजगार सालों तक
बहने जिस तरह रहीअविवाहित बहुत दिन
पिता बननेके बाद ही
मैं पिता को जान सका
जबकि बचपनमें लड़ता रहा उनसे
हे पिता
तुम माफ़ करना मुझे
तुम्हे मैं कोई ईसुख नहीं देस का
नहीं करा सका तुम्हारे कैंसर का इलाज़ ठीक से.
आखिर क्यों
इतनेसालों बाद
फूट फूटकर रो रहें हैं
तस्वीर में मेरे पिता

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